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चलो एक और नया साल आ ही गया। नव वर्ष, नई उम्मीदें और नया उत्साह। चाहत यही की जो अबतक नहंी कर पाये वो सब इस नव वर्ष मेंं पूर्ण कर लें। और इसी कड़ी में एक बहुत पुरानी सोच आज अचानक ही दिल और दिमाग पर हावी होने लगी है। हर नव वर्ष और हर जन्मदिन पर अक्सर मैं सेाचा करता हूॅ कि अब आज से मैं भी अपने विद्वान मित्रों की तरह कुछ लिखना शुरु करु, कुछ अपने बारे में लिखूॅ, कुछ अपने सपनों को शब्द रुप दूं। पर जाने क्यों ऐसा अवसर ही नहीं मिल पा रहा था। कुछ व्यस्तता या सच लिखूं तो आलस्यता के कारण मैं अब तक ऐसा कर ही नहीं पाया। एक कारण यह भी है कि मुझे कभी ऐसा लगा ही नहंी कि मैं कुछ अच्छा लिख सकता हूं। पर अब सोचता हूं कि इस तमन्ना को भी पूरा कर ही लूं। आज इस नव वर्ष की सुबह के साथ नई किरण ने जब धरा को चूमा तो पूरा जहां रौशन हो गया। हर जगह जश्न और उल्लास। मैं भी खुश हूं पर जाने क्यों ऐसा लगता है कि बहुत कुछ नहीं बदला है। बस एक कैलेन्डर बदल गया। अपने दिन की शुरुआत तो वैसी ही रही जैसी रोज होती है। देर से उठना, चाय का ठंढ़ा हो जाना, अखबार की खबरो में खो जाना। हां आज कुछ बदला था तो बस यही कि मां की डांट आज देर से उठने पर भी नहीं लगी। शायद यह सोच कर छोड़ दिया मां ने कि पूरे साल तो डाटना ही है तो आज छोड़ ही दूं। और उन्हें तो पता ही है कि मैं नहंी सूधरुंगा। मुझे लगता है कि जीवन में सही राह पर चलने के लिए अपने इश्वर की अराधना आवश्यक है और आज के दिन मैने भी ईश्वर का ध्यान लगा ही लिया। कुछ दोस्तो ने नव वर्ष की मंगल कामना और शुभकामनाएं दी और दिन की मधुर शुरुआत हो गई। रोज की तरह अपना आफिस और मेरा कम्प्युटर हम दोनो फिर से मिल गये। और शुरु हो गया 1-1-11 का दौर। दोस्तो के साथ कुछ मस्ती और कुछ जरुरी ईमेल। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था पर फिर भी मुझे कुछ कमी सी लग रही थी। लग रहा था जैसे कुछ छुट सा रहा है। जाने क्यों आसपास होने वाली हर आहट से ऐसा महसूस हो रहा था कि कौन है जो मुझे आवाज दे रहा है।
कोई है शायद ! पर पता नहीं वो मुझसे मिला ही नहीं। आज ऐसा लग रहा था मानो मैने खुद को ही नव वर्ष की शुभकामनाएं नहीं दी हैं और फिर अचानक ही घड़ी ने इशारा किया कि अब घर चलो।
घर आकर मैं आराम से अपनी नींद में खो गया और फिर से मेरे सपनों का कांरवा शुरु हो गया। फिर सपनो में अपनो से झगड़ा। जाने ऐसा रोज क्यों होता है। अपने सपने से खुद ही लड़ना और फिर अचानक आंखों से आये आसुओं के गालों पर ढ़रक जाने के कारण अचानक ही नींद का खुल जाना। और फिर वो अफसोस। सपनों को नहीं जी पाने का। पर सच लिखूं तो सपनों के साथ ये झगड़े का दौर तो रोज ही चलता है। न सपने आना बंद होते हैं और न ही मेरा उनसे झगड़ना। जाने ये दौर कब खतम होगा जाने मेरे जीवन का कोई सपना सच होगा। पता नहीं कब ……………………………….. पर अब तो फिर से कैलेन्डर के पूरे 12 पन्ने नये ही हैं। फिर क्या सोचना कोशिश करते रहना है। लिखना नहीं आने पर भी कुछ ऐसा लिखते रहना है………………………………………… अरे अब मैं चला फिर से सोने और अपने प्यारे सपनों में खोने।
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